।।अथ मंगलाचरण।।

गरीब नमो नमो सत् पुरूष कुं, नमस्कार गुरु कीन्ही। सुरनर मुनिजन साधवा, संतों सर्वस दीन्ही।
सतगुरु साहिब संत सब डण्डौतम् प्रणाम। आगे पीछै मध्य हुए, तिन कुं जा कुरबान।।
नराकार निरविषं, काल जाल भय भंजनं। निर्लेपं निज निर्गुणं, अकल अनूप बेसुन्न धुनं।
सोहं सुरति समापतं, सकल समाना निरति लै। उजल हिरंबर हरदमं बे परवाह अथाह है, वार पार नहीं मध्यतं।।
गरीब जो सुमिरत सिद्ध होई, गण नायक गलताना। करो अनुग्रह सोई, पारस पद प्रवाना।
आदि गणेश मनाऊँ, गण नायक देवन देवा। चरण कवंल ल्यो लाऊँ, आदि अंत करहूं सेवा।।
परम शक्ति संगीतं, रिद्धि सिद्धि दाता सोई। अबिगत गुणह अतीतं, सतपुरुष निर्मोही।
जगदम्बा जगदीशं, मंगल रूप मुरारी। तन मन अरपुं शीशं, भक्ति मुक्ति भण्डारी।।
सुर नर मुनिजन ध्यावैं, ब्रह्मा विष्णु महेशा। शेष सहंस मुख गावैं, पूजैं आदि गणेशा।
इन्द कुबेर सरीखा, वरुण धर्मराय ध्यावैं। सुमरथ जीवन जीका, मन इच्छा फल पावैं।।
तेतीस कोटि अधारा, ध्यावैं सहंस अठासी। उतरैं भवजल पारा, कटि हैं यम की फांसी।

।। आरती ।।

पहली आरती हरि दरबारे, तेजपु´ज जहां प्राण उधारे।
पाती पंच पौहप कर पूजा, देव निंरजन और न दूजा।।
खण्ड खण्ड में आरती गाजै, सकलमयी हरि जोति विराजै।
शान्ति सरोवर म´जन कीजै, जत की धोति तन पर लीजै।।
ग्यान अंगोछा मैल न राखै, धर्म जनेऊ सतमुख भाषै।
दया भाव तिलक मस्तक दीजै, प्रेम भक्ति का अचमन लीजै।।
जो नर ऐसी कार कमावै, कंठी माला सहज समावे।
गायत्री सो जो गिनती खोवै, तर्पण सो जो तमक न होवैं।।
संध्या सो जो सन्धि पिछानै, मन पसरे कुं घट में आनै।
सो संध्या हमरे मन मानी, कहैं कबीर सुनो रे ज्ञानी।।

ऐसी आरती त्रिभुवन तारे, तेजपुंज जहां प्राण उधारे।
पाती पंच पौहप कर पूजा, देव निरंजन और न दूजा।।
अनहद नाद पिण्ड ब्रह्मण्डा, बाजत अहर निस सदा अखण्डा।
गगन थाल जहां उड़गन मोती, चंद सूर जहां निर्मल जोती।।
तनमन धन सब अर्पण कीन्हा, परम पुरुष जिन आत्म चीन्हा।
प्रेम प्रकाश भया उजियारा, कहैं कबीर मैं दास तुम्हारा।।

संध्या आरती करो विचारी, काल दूत जम रहैं झख मारी।
लाग्या सुषमण कूंची तारा, अनहद शब्द उठै झनकारा।।
उनमुनि संयम अगम घर जाई, अछै कमल में रहया समाई।
त्रिकुटी संजम कर ले दर्शन, देखत निरखत मन होय प्रसन्न।।
प्रेम मगन होय आरती गावैं, कहैं कबीर भौजल बहुर न आवै।

हरि दर्जी का मर्म न पाया, जिन यौह चोला अजब बनाया।
पानी की सुई पवन का धागा, नौ दस मास सीमते लागा।।
पांच तत्त की गुदरी बनाई, चन्द सूर दो थिगरी लगाई।
कोटि जतन कर मुकुट बनाया, बिच बिच हीरा लाल लगाया।।
आपै सीवैं आपे बनावैं, प्राण पुरूष कुं ले पहरावैं।
कहै कबीर सोई जन मेरा, नीर खीर का करै निबेरा।।

 

राम निरंजन आरती तेरी, अबिगत गति कुछ।
समझ पड़े नहीं, क्यूं पहुंचे मति मेरी।।
नराकार निर्लेप निरंजन, गुणह अतीत तिहूं देवा।
ज्ञान ध्यान से रहैं निराला, जानी जाय न सेवा।।
सनक सनंदन नारद मुनिजन, शेष पार नहीं पावै।
शंकर ध्यान धरैं निषवासर, अजहूं ताहि सुलझावैं।।
सब सुमरैं अपने अनुमाना, तो गति लखी न जाई।
कहैं कबीर कृपा कर जन पर, ज्यों है त्यों समझाई।।

नूर की आरती नूर के छाजै, नूर के ताल पखावज बाजैं।
नूर के गायन नूर कुं गावैं, नूर के सुनते बहुर न आवैं।।
नूर की बाणी बोलै नूरा, झिलमिल नूर रहा भरपूरा।
नूर कबीरा नूर ही भावै, नूर के कहे परम पद पावैं।।

 

तेज की आरती तेज के आगै, तेज का भोग तेज कुं लागै।
तेज पखावज तेज बजावै, तेज ही नाचै तेज ही गावै।।
तेज का थाल तेज की बाती, तेज का पुष्प तेज की पाती।
तेज के आगै तेज विराजै, तेज कबीरा आरती साजै।।

 

आपै आरती आपै साजै, आपै किंगर आपै बाजै।
आपै ताल झांझ झनकारा, आप नाचै आप देखन हारा।।
आपै दीपक आपै बाती, आपै पुष्प आप ही पाती।
कहैं कबीर ऐसी आरती गाऊँ, आपा मध्य आप समाऊँ।।

अदली आरती अदल समोई, निरभै पद में मिलना होई।
दिल का दीप पवन की बाती, चित्त का चन्दन पांचों पाती।।
तत्त का तिलक ध्यान की धोती,मन की माला अजपा जोती।
नूर के दीप नूर के चैरा, नूर के पुष्प नूर के भौरा।।
नूर की झांझ नूर की झालरि, नूर के संख नूर की टालरि।
नूर की सौंज नूर की सेवा, नूर के सेवक नूर के देवा।।
आदि पुरुष अदली अनुरागी, सुन्न संपट में सेवा लागी।
खोजो कमल सुरति की डोरी, अगर दीप में खेलो होरी।।
निर्भय पद में निरति समानी, दास गरीब दरस दरबानी।

अदली आरती अदल उचारा, सतपुरुष दीजो दीदारा।
कैसे कर छूटैं चैरासी, जूनी संकट बहुत तिरासी।।
जुगन जुगन हम कहते आये, भौसागर से जीव छुटाये।
कर विश्वास स्वास कुं पेखो, या तन में मन मूरति देखो।।
स्वासा पारस भेद हमारा, जो खोजै सो उतरै पारा।
स्वासा पारस आदि निशानी, जो खोजै सो होय दरबानी।।
हरदम नाम सुहंगम सोई, आवा गवन बहुर नहीं होई।
अब तो चढै नाम के छाजे, गगन मंडल में नौबत बाजैं।।
अगर अलील शब्द सहदानी, दास गरीब विहंगम बानी।

अदली आरती असल बखाना, कोली बुनै बिहंगम ताना।
ज्ञान का राछ ध्यान की तुरिया, नाम का धागा निश्चय जुरिया।।
प्रेम की पान कमल की खाड़ी, सुरति का सूत बुनै निज गाढी।
नूर की नाल फिरै दिन राती, जा कोली कुं-काल न खाती।।
कुल का खूंटा धरनी गाडा, गहर गझीना ताना गाढ़ा।
निरति की नली बुनै जै कोई, सो तो कोली अविचल होई।।
रेजा राजिक का बुन दीजै, ऐसे सतगुरु साहिब रीझै।
दास गरीब सोई सत्कोली, ताना बुन है अर्स अमोली।।

अदली आरती असल अजूनी, नाम बिना है काया सूनी।
झूठी काया खाल लुहारा, इला पिंगुला सुषमन द्वारा।।
कृतघ्नी भूले नरलोई, जा घट निश्चय नाम न होई।
सो नर कीट पतंग भवंगा, चैरासी में धर हैं अंगा।।
उद्भिज खानी भुगतैं प्रानी, समझैं नाहीं शब्द सहदानी।
हम हैं शब्द शब्द हम माहीं, हम से भिन्न और कुछ नाहीं।।
पाप पुण्य दो बीज बनाया, शब्द भेद किन्हें बिरलै पाया।
शब्द सर्व लोक में गाजै, शब्द वजीर शब्द है राजै।।
शब्द स्थावर जंगम जोगी, दास गरीब शब्द रस भोगी।

अदली आरती असल जमाना, जम जौरा मेटूं तलबाना।
धर्मराय पर हमरी धाई, नौबत नाम चढ़ो ले भाई।।
चित्र गुप्त के कागज कीरुं, जुगन जुगन मेंटू तकसीरूं।
अदली ग्यान अदल इक रासा, सुनकर हंस न पावै त्रासा।।
अजराईल जोरावर दाना, धर्मराय का है तलवाना।
मेटूं तलब करुं तागीरा, भेटे दास गरीब कबीरा।।

अदली आरती असल पठाऊं,जुगन जुगन का लेखा ल्याऊं।
जा दिन ना थे पिण्ड न प्राणा, नहीं पानी पवन जिमीं असमाना।।
कच्छ मच्छ कुरम्भ न काया, चन्द सूर नहीं दीप बनाया।
शेष महेष गणेश न ब्रह्मा, नारद शारद न विश्वकर्मा।।
सिद्ध चैरासी ना तेतीसों, नौ औतार नहीं चैबीसो।
पांच तत्त नाहीं गुण तीना, नाद बिंद नाहीं घट सीना।।
चित्रगुप्त नहीं कृतिम बाजी, धर्मराय नहीं पण्डित काजी।
धुन्धू कार अनन्त जुग बीते, जा दिन कागज कहो किन चीते।।
जा दिन थे हम तखत खवासा, तन के पाजी सेवक दासा।
संख जुगन परलो प्रवाना, सत पुरुष के संग रहाना।।
दास गरीब कबीर का चेरा, सत लोक अमरापुर डेरा।

ऐसी आरती पारख लीजै, तन मन धन सब अर्पण कीजै।
जाकै नौ लख कु´ज दिवाले भारी, गोवर्धन से अनन्त अपारी।।
अनन्त कोटि जाकै बाजे बाजैं,अनहद नाद अमरपुर साजैं।
सुन्न मण्डल सतलोक निधाना, अगम दीप देख्या अस्थाना।।
अगर दीप में ध्यान समोई, झिलमिल झिलमिल झिलमिल होई।
तातें खोजो काया काशी, दास गरीब मिले अविनासी।।

ऐसी आरती अपरम् पारा, थाके ब्रह्मा वेद उचारा।
अनन्त कोटि जाकै शम्भु ध्यानी, ब्रह्मा संख वेद पढैं बानी।।
इन्द्र अनन्त मेघ रस माला, शब्द अतीत बिरध नहीं बाला।
चन्द सूर जाके अनन्त चिरागा, शब्द अतीत अजब रंग बागा।।
सात समुन्द्र जाकै अंजन नैना, शब्द अतीत अजब रंग बैना।
अनन्त कोटि जाकै बाजे बाजें, पूर्णब्रह्म अमरपुर साजैं।।
तीस कोटि रामा औतारी, सीता संग रहती नारी।
तीन पद्म जाकै भगवाना,सप्त नील कन्हवा संग जाना।।
तीस कोटि सीता संग चेरी, सप्त नील राधा दे फेरी।
जाके अर्ध रूंम पर सकल पसारा, ऐसा पूर्णब्रह्म हमारा।।
दास गरीब कहै नर लोई, यौह पद चीन्है बिरला कोई।
गरीब, सत्वादी सब संत हैं, आप आपने धाम।।
आजिज की अरदास है, सब संतन प्रणाम।

।।आरती के साथ लगातार करनी है।।

गुरु ज्ञान अमान अडोल अबोल है,सतगुरु शब्द सेरी पिछानी।
दासगरीब कबीर सतगुरु मिले,आन अस्थान रोप्या छुड़ानी।।
दीनन के जी दयाल भक्ति बिरद दीजिए।
खाने जाद गुलाम अपना कर लीजिए।टेक।
खाने जाद गुलाम तुम्हारा है सही।
मेहरबान महबूब जुगन जुग पत रही।।
बांदी का जाम गुलाम गुलाम गुलाम है।
खड़ा रहे दरबार, सु आठों जाम है।।
सेवक तलबदार, दर तुम्हारे कूक ही।
अवगुण अनन्त अपार, पड़ी मोहि चूक ही।।
मैं घर का बांदी जादा, अर्ज मेरी मानिये।
जन कहते दास गरीब अपना कर जानिये।।

।।साखी।।

गरीब, जल थल साक्षी एक है, डुंगर डहर दयाल।
दसों दिशा कुं दर्शनं, ना कहीं जोरा काल।।
गरीब, जै जै जै करुणामई, जै जै जै जगदीश।
जै जै जै तूं जगत गुरु, पूर्ण बिश्वे बीस।।
राग रूप रघुवीर है, मोहन जाका नाम।
मुरली मधुर बजावही, गरीब दास बलि जांव।।
गरीब, बांदी जाम गुलाम की, सुनियों अर्ज अवाज।
यौह पाजी संग लीजियो, जब लग तुमरा राज।।
गरीब, परलो कोटि अनन्त हैं, धरनी अम्बर धौल।
मैं दरबारी दर खड़ा, अचल तुम्हारी पौलि।।

गरीब, समर्थ तूं जगदीश है, सतगुरु साहिब सार।
मैं शरणागति आईया, तुम हो अधम उधार।।
गरीब, सन्तों की फुलमाल है, वरणौं वित्त अनुमान।
मैं सबहन का दास हूं, करो बन्दगी दान।।
गरीब, अरज अवाज अनाथ की, आजिज की अरदास।
आवण जाणा मेटियो, दीज्यो निश्चल वास।।
गरीब, सतगुरु के लक्षण कहूं, चाल विहंगम बीन।
सनकादिक पलड़ै नहीं, शंकर ब्रह्मा तीन।।
गरीब दूजा ओपन आपकी, जेते सुर नर साध।
मुनियर सिद्ध सब देखिया, सतगुरु अगम अगाध।।
गरीब, सतगुरु पूर्ण ब्रह्म हैं, सतगुरु आप अलेख।
सतगुरु रमता राम हैं, या में मीन न मेख।।

पूर्ण ब्रह्म कृपानिधान, सुन केशो करतार।
गरीब दास मुझ दीन की, रखियो बहुत सम्भार।।
गरीब, पंजा दस्त कबीर का, सिर पर राखो हंस।
जम किंकर चम्पै नहीं, उधर जात है वंश।।
अलल पंख अनुराग है, सुन्न मंडल रहै थीर।
दास गरीब उधारिया, सतगुरु मिले कबीर।।
शरणा पुरुष कबीर का, सब संतन की ओट।
गरीब दास रक्षा करैं, कबहु न लागै चोट।।
गरीब, सतवादी के चरणों की, सिर पर डारूं धूर।
चैरासी निश्चय मिटै, पहुंचै तख्त हजुर।।
शब्द स्वरूपी उतरे, सतगुरु सत कबीर।
दास गरीब दयाल हैं, डिगे बंधावैं धीर।।
कर जोरूं विनती करूं, धरूं चरण पर शीश।

सतगुरु दास गरीब हैं, पूर्ण बिसवे बीस।।
नाम लिये से सब बड़े रिंचक नहीं कसूर।
गरीब दास के चरणां की, सिर पर डारूं धूर।।
गरीब, जिस मण्डल साधु नहीं, नदी नहीं गुंजार।
तज हंसा वह देसड़ा, जम की मोटी मार।।
गरीब, जिन मिलते सुख ऊपजै, मिटैं कोटि उपाध।
भुवन चतुर्दस ढूंढिये, परम स्नेही साध।।

गरीब, बन्दी छोड़ दयाल जी, तुम लग हमरी दौड़।
जैसे काग जहाज का, सुझत और न ठौर।।
गरीब, साधु माई बाप हैं, साधु भाई बन्ध।
साधु मिलावैं राम से, काटैं जम के फन्द।।
गरीब, सब पदवी के मूल हैं, सकल सिद्ध हैं तीर।
दास गरीब सतपुरुष भजो, अबिगत कला कबीर।।
बिना धणी की बन्दगी, सुख नहीं तीनों लोक।
चरण कमल के ध्यान से गरीब दास संतोष।।

।। शब्द।।

तारैंगे तारैंगे तहतीक, सतगुरु तारैंगे।टेक।
घट ही में गंगा, घट ही में जमुना, घट ही में हैं जगदीश।
तुमरा ही ज्ञाना, तुमरा ही ध्याना, तुमरे तारन की प्रतीत।।
मन कर धीर बांध लेरे बौरे, छोड़ दे न पिछल्यों की रीत।
दास गरीब सतगुरु का चेरा, टारैंगे जम की रसीद।।
केशो आया है बनजारा, काशी ल्याया माल अपारा।टेक।

नौलख बोडी भरी विश्म्भर, दिया कबीर भण्डारा।
धरती उपर तम्बू ताने, चैपड़ के बैजारा।।
कौन देश तैं बालद आई, ना कहीं बंध्या निवारा।
अपरम्पार पार गति तेरी, कित उतरी जल धारा।।
शाहुकार नहीं कोई जाकै, काशी नगर मंझारा।
दास गरीब कल्प से उतरे, आप अलख करतारा।।

समरथ साहिब रत्न उजागर,सतपुरुष मेरे सुख के सागर।
जुनी संकट मेट गुसांई, चरण कमल की मैं बली जाही।।
भाव भक्ति दिज्यो प्रवाना, साधु संगती पूर्ण पद ज्ञाना।
जन्म कर्म मेटो दुःख दुंदा,सुख सागर में आनन्द कंदा।।
निर्मल नूर जहूर जूहारं, चन्द्रगता देखो दिदारं।
तुमहो बंकापुर के वासी, सतगुरु काटो जम की फांसी।।
मेहरबान हो साहिब मेरा, गगन मण्डल में दीजौ डेरा।
चकवे चिदानन्द अविनाशी,रिद्धिसिद्धि दाता सब गुण राशी।।
पिण्ड प्राण जिन दीने दाना, गरीब दास जाकुं कुर्बाना।
कबीर, गुरुजी तुम ना बीसरौ, लाख लोग मिलिजाहिं।।

हमसे तुमकूं बहुत हैं, तुमसे हमको नाहिं।।
कबीर, तुम्हे बिसारे क्या बनै, मैं किसके शरने जाउँ।
शिव विरंचि मुनि नारदा, तिनके हृदय न समाउँ।।
कबीर, औगुन किया तो बहु किया, करत न मानी हारि।
भावै बंदा बखशियो, भावै गरदन तारि।।
कबीर, औगुन मेरे बापजी, बखशो गरीब निवाज।
जो मैं पूत कपूत हों, बहुर पिताकों लाज।।
कबीर, मैं अपराधी जनमका, नख शिख भरे बिकार।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो संभार।।
कबीर, अबकी जो सतगुरु मिलै, सब दुःख आँखों रोइ।
चरणों ऊपर शिर धरों, कहूँ जो कहना होइ।।
कबीर, कबिरा सांई मिलैंगे, पूछेंगे कुशलात।
आदि अंतकी सब कहूँ, अपने दिल की बात।।
कबीर, अंतरयामी एक तू, आतमके आधार।
जो तुम छाँडौ हाथ , तो कौन उतारै पार।।

मेरे गुरुदेव भगवान-भगवान।
दियो काट काल की फांसी।।टेक।।

अवगुण किये घनेरे, फिर भी भले बुरे हम तेरे।
दास को जान कै निपट नादान – हो नादान,
मोहे बक्स दियो अविनाशी।।
मेरै उठै उमंग सी दिल मैं, तुम्हें याद करूं पल-पल मैं।
आपका ऐसा मक्खन ज्ञान – हो ज्ञान,
यो जगत बिलोवै लास्सी।।
या दुनिया सुख से सोवै, तेरा दास उठकै रोवै।
मेरा मेटो आवण जाण – हो जाण,
या करियो मेहर जरा सी।।
नहीं तपत शिला पै जलना, कोए चैरासी का भय ना।
रोग कट्या सुमेर समान – हो समान,
या गई तृष्णा खासीं।।
तुम्हें कहां ढूंढ के ल्याऊँ, अब तड़फ-2 रह जाऊँ।
आप गए अमर अस्थान – हो अस्थान,
दई छोड़ तड़पती दासी।।
स्वामी रामदेवानन्द दाता, आपकी घणी सतावैं वैं बाता।
तेरा रामपाल अज्ञान – हो अज्ञान,
किया सतलोक का वासी।।