सतगुरु शरण शरणाई, शरण गहे कछु भय।
नहीं व्यापै, काल जाल भय मिट जाहीं।।
रोग शोग छल छिद्र न व्यापै, सन्मुख ना ठहराई।
जहर अग्नि तन निकट न आवै, दूरी जात रंगाई।।
बीर बेताल बाण ना लागै, जम के कोट ढहाई।
अठानवे पुण्य मूठ ना लागै, उल्ट ताही धरखाई।।
बैर करे सोए दुःख पावै, सुरति शब्द मिल जाई।
कह कबीर हम जम दल पेल्या, सतगुरु लाख दुहाई।।